Dikhava

'दिखावा' एक लघु कहानी ब्लॉग है। यह एक प्रयास है समाज को आइना दिखाने का। ' दिखावा ' मुख्या उदेशय लोगो को अंतकरण मै झाकने के लिए प्रेरित करना है

Wednesday 28 June 2017

अनार का पेड़

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अपने 6 साल के बेटे को  आगे पीछे शरारते करते जब   अक्सर अपना बचपन बहुत याद आता है बड़ा सा आंगन और बहुत से पेड़ , आम के, जामुन के और अमरुद के , और भी  जाने कितने तरह  पेड़  थे।  मैं कसर जमीन पे उगने वाले पढ़िए के पत्ते तुलसी के पत्ते तोड़ के खाया करती थी 
मुझे याद है के हम  जिस  घर एक एक  दुरी पे थे और बहुत बड़े भी।  हमारे घर के पीछे भी छोटे छोटे कमरे मई लगभग 6 या उस से ज्यादा परिवार रहते थे। तक़रीबन सभी परिवार बिहार के पिछड़े इलाको से थे और रहन सहन बहुत ख़राब था।  उनके बचो के कपडे अक्सर मैले और कई बार बदबूदार भी होते थे। पर मैं बहुत खुश रहती थी उन बचो के साथ।  स्कूल से आते ही उन बचो के साथ घर घर  खेलना मेरा  खेल था। हलाकि ज्यादातर खेल वो बचे सड़क के किनारे खेलते थे जिस से मेरी माँ को  था।  क्युकी ये उनके मुताबिक अचे बच्चो का काम नहीं।  शायद वो सही भी हो उस वक्त अपनी सोच मैं क्युकी हमारे आंगन मैं इतनी जगह थी के आराम से खेला जा सकता था और ऐसे मैं मेरी माँ को मेरा घर से दूर सड़क के बीच ख़राब हालात बचो के साथ खेलना उन्हें निश्चित ही परेशान भी करता होगा। मुझे आज भी याद है उन बचो के नाम , दीपमाला , शोभा, नैना, आरती , राजू, मुनिया ,मीशा, मनसा, मनभावती  और चुहिया। 
बिहार के गांव से होने के कारन उन लोगो को खेती बाड़ी की बेहतर अछि समझ भी थी इसीलिए  मैं अक्सर आंगन मैं पेड़ पौधे लगाती थी कभी टमाटर , कभी  भिंडी तो कभी घीया ,टोरी , मक्की ,पुदीना  और पपीता। हलाकि ये ज्यादातर पेड़ मौसम के करवट बदलते ही खराब होकर सूख  जाते थे 
मुझे याद है के मेरी माँ ने मुझे एक अनार का पौधा लाकर दिया था जिसे अपने स्टोर रूम के  पीछे मैंने रोप दिया था और रोज उसे खूब प्यार से मैं  पानी देती थी उसके लिए खाद का इंतजाम करना और कीट नाशक छिड़कना ये सब  जरुरी काम थे 
 समय के  उस पेड़ की लम्बाई बड़ी और वो पेड़ मेरे कमर से भी ऊँचा हो गया और एक साल मैं वो पेड़ मेरे सर से भी ऊँचा हो गया 
 और 2 साल बाद उस पर फूल  उगने लगे और मैं  अभी भी दीपमाला और चुहिया के साथ उस पेड़ के निचे स्टापू खेला करती थी पहले साल 4 अनार लगे और  अगले  बरस शयद 20 अनार लगे फिर एक दिन उस घर को  मेरे माँ पापा ने किसी को बेच दिया और हमें 6  महीने मैं वो घर खाली करना था मई सोचती रही के कैसे उस पेड़ को साथ सकू और धीरे धीरे सभी किरायेदारों ने वो घर छोड़ दिया वो पेड़ वीरान सा बना वही खड़ा रहा। अब मई भी उस पेड़ के पास नहीं जाती थी क्युकी दीपमाला , शोभा, चुहिया कोई भी तो नहीं था मेरे साथ।  तो किसके साथ खेलती स्टापू और अकेले तो उस  के फल गिनने का भी दिल नहीं करता था।  ऐसा लगता था के वो पेड़  चूका था के अब उसे अकेले ही रहन होगा इसीलिए उसके पत्ते न तो अब हिलते थे न हवा करते थे ऐसा लगता था के वो पेड़  समय  से पहले  ही बूढ़ा हो चूका   था। 
धीरे धीरे हमारे  नए घर मैं  तैयारियां तेज हो गई सब लोग नए घर की साज सजावट और सफाई मैं  व्यस्त हो गए और आखिर वो दिन आ ही गया  जब हमें  वो घर छोर कर जाना था।  एक एक करके सब  समान नए घर मैं ट्रक ट्रक से पहुंचाया जाएं लगा और सबसे आखिर मई सब पेड़ पोधो को गमलो को ट्रक मै  रखा गया।  पर पेड़ वो पेड़ वही खड़ा रहा और हम उस घर की चाबी किसी और के हवाले कर के नए घर  को आ गए।   

अब  भी सोचती हु  वो पेड़ इंसानो की तरह क्यों नहीं था ? क्यू  जड़े छोड़ नहीं सकता था ?

रेलवे स्टेशन का साधू

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रेलवे स्टेशन के खाली प्लेटफार्म पर बैठी, मैं ट्रैन का इन्तजार कर रही थी. लाउड स्पीकर से आने वाली हर आवाज को मेरे कान लगातार सुन रहे थे. मेरी ट्रैन निकल चुकी थी और अगली ट्रैन २ घंटे बाद थी. मैं  एक अच्छी लड़की की तरह चुपचाप प्लॅटफॉर पे बैठी हुई थी।  आने जाने वाले लोगो की हलचल देख रही थी. कुछ लोग अपने बच्चो को चिप्स के पैकेट खरीद के दे रहे थे. और कुछ बेवजह ही प्लेटफार्म से दूर तक रेलट्रैक को देख रहे थे के शायद कोई और ट्रैन हो जिस से वो जल्दी पहुंच सके अपनी मंजिल को। 
प्लेटफार्म पे लगी सीमेंट की बैठने की कुर्सी पर बैठे हर किसी इंसान को इन्तजार था अगली  ट्रैन का।  इतने  मैं एक साधू भी प्लेटफार्म पे आया।  उम्र से काफी कम दिखें वाला वो साधू बाबा पूरी फुर्ती के साथ स्टेशन   पे इधर से उधर चहलकदमी करने लगा. कपड़ो की बात करू  तो बसंती रंग का कुरता और धोती पहने हुआ था वो बाबा।  शरीर की लम्बाई भी 6  फुट के आस पास होगी।  बालो की लम्बी जटाये सर पे लपेट कर और उसपर भी बसंती रंग की पगड़ी पहन कर वो चहलकदमी करे जा रहा था।  
इतने मैं एक शताब्दी ट्रैन आई पर उस ट्रैन पे केवल रिजर्वेशन यानी के वो लोग जो अधिक किराया दे सकते थे वह लोग ही जा सकते थे।  कुछ सावरीया ट्रैन से उत्तरी और शायद दो चार लोग उसमें चढ़े और ट्रैन चल पड़ी।  दो मिनट मै  ही पलटफोर्म फिर से वीरान हो गया।  
तभी वो साधू बाबा उठा और एक पुरुष  के पास जाकर बोला  " कुछ खिला दो बाबा, मुझे भूख लगी है " उस आदमी ने पेण्ट शर्ट पहनी हुई तो अछि हैसियत का मालूम होता था। पर फिर भी उस आदमी उसे गर्दन हिलाकर मना कर दिया। 
फिर वह साधू बाबा एक और आदमी के पास गया और वही बात बोली, पर उसे इस बार भी इस तरह मना कर दिया गया इसके बाद एक बार और ये ही हुआ और इस बार उस साधू बाबा के सहनशक्ति जवाब दे गयी।  और उसने अपने सर से पगड़ी उठा कर प्लेटफार्म पे फेक दी और गाली देकर चिल्लाते हुए बोला " क्या तुम्हे केवल वो ही लोग साधू सन्यासी नजर आटे है जो भगवा कपडे पहन कर ए सी गाड़ीमे इधर उधर घूमते रहते है, और तुम लोग भी उनके आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हो और नोटों की गद्दी लेकर भी। उन लोगो के तुम पेअर छूने को भी तैयार रहते हो लेकिन मैं क्या साधू नहीं।  ये जटाये  क्या मैंने यु ही शोक मैं  बड़ा ली। "

इतना कहकर उस साधू बाबा ने अपनी कमर से निचे गिरती जटाये  फिर से लपेटी और जमीन से गिरी हुई भगवा पगड़ी उठाई और दुबारा सर पर लपेट ली और प्लेटफार्म के कोने से तेजी से आगे चला गया 
परन्तु उसकी बाते अभी भी मेरे मैं को भीतर तक कचोटती है के आज के जीवन मैं लोग ए सी कमरे मैं रहने वाले, सोने चांदी के बर्तन मई खाने वाले और अचे संस्कारो का भाषण देने वाले को ही साधू क्यों मानते है कुछ लोग तर्क डेट है ये सड़क पे घूमें वाले साधू पीसो का उपयोग नशे का सेवन के लिट्ये करते है परन्तु इस बात का क्या प्रमाण के 5 स्टार साधू जो लम्बी लम्बी गाड़ियों ै घुटे है के वो यह सब प्रकार के विकारो से दूर है ?

इतने मैं ही मेरी ट्रैन आ गयी और मैं भी बाकी सभी लोगो की तरह ट्रैन मैं बैठ निकल पड़ी मंजिल की और।